भारत में सरकारी योजनाएँ, विशेषकर आर्थिक सहायता या सब्सिडी के रूप में, हमेशा बहस का विषय रही हैं। एक ओर, ये कमजोर वर्गों को सहारा देने और सामाजिक समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दूसरी ओर, इनके वित्तपोषण का बोझ अंततः करदाताओं पर पड़ता है, जिससे अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकते हैं। एक आर्थिक विशेषज्ञ के तौर पर, आइए इस जटिल मुद्दे के सही और गलत दोनों पहलुओं का विश्लेषण करें और बिहार तथा अन्य राज्यों के संदर्भ में दी जा रही सब्सिडियों का मूल्यांकन करें।
सरकारी योजनाओं का ‘सही’ पक्ष: आर्थिक सहायता का महत्व
सरकारी योजनाओं का प्राथमिक उद्देश्य समाज के वंचित और कमजोर वर्गों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है। ये योजनाएँ कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं:
- गरीबी उन्मूलन: खाद्य सब्सिडी, मनरेगा जैसी योजनाएँ सीधे तौर पर गरीबों को लाभ पहुंचाकर उन्हें न्यूनतम जीवन स्तर बनाए रखने में मदद करती हैं।
- सामाजिक समानता: शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसी क्षेत्रों में सब्सिडी सभी को समान अवसर प्रदान करती है, जिससे समाज में विषमता कम होती है।
- आर्थिक स्थिरता: कुछ सब्सिडी, जैसे कृषि सब्सिडी, किसानों को अनिश्चितताओं से बचाकर कृषि क्षेत्र में स्थिरता लाती हैं, जो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- मांग में वृद्धि: प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) जैसी योजनाएँ लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाती हैं, जिससे बाजार में मांग बढ़ती है और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है।
- मानव पूंजी निर्माण: शिक्षा और स्वास्थ्य पर व्यय दीर्घकालिक रूप से मानव पूंजी के निर्माण में सहायक होता है, जो अंततः देश की उत्पादकता बढ़ाता है।
उदाहरण: बिहार में ‘मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना‘ या ‘सात निश्चय’ जैसी योजनाएँ महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास में योगदान दे रही हैं। इसी तरह, अन्य राज्यों में किसानों को बिजली और उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी उत्पादन लागत कम कर किसानों को राहत देती है।
हाल ही में, बिहार सरकार ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना Apply here और लक्ष्मीबाई सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के तहत पेंशन राशि को बढ़ाकर ₹1100 प्रति माह कर दिया है। यह कदम विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को सीधे वित्तीय सहायता प्रदान कर उनके जीवन स्तर में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करता है और कमजोर वर्गों को सम्मानजनक जीवन जीने में मदद करता है, जिससे समाज में समानता को बढ़ावा मिलता है।
सरकारी योजनाओं का ‘गलत’ पक्ष: जनता पर आर्थिक बोझ
हालांकि सरकारी योजनाओं के कई लाभ हैं, उनके वित्तपोषण का तरीका और उनके दीर्घकालिक प्रभाव चिंता का विषय हो सकते हैं:
- राजकोषीय घाटा: सब्सिडी के लिए भारी व्यय अक्सर सरकार के राजकोषीय घाटे को बढ़ाता है। जब सरकार अपने राजस्व से अधिक खर्च करती है, तो उसे उधार लेना पड़ता है, जिससे सार्वजनिक ऋण में वृद्धि होती है।
- बढ़ता कर्ज और ब्याज भुगतान: बढ़ता सार्वजनिक ऋण भविष्य की पीढ़ियों पर बोझ डालता है, क्योंकि सरकार को उस कर्ज पर भारी ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। यह ब्याज भुगतान विकास कार्यों या अन्य आवश्यक सेवाओं से धन को विमुख कर सकता है।
- मुद्रास्फीति का दबाव: जब सरकार नोट छापकर या भारी उधार लेकर व्यय करती है, तो इससे अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त तरलता आती है, जिससे मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ सकता है। अंततः, बढ़ी हुई कीमतें आम जनता को ही प्रभावित करती हैं।
- कुशल संसाधनों का दुरुपयोग: कुछ सब्सिडी, जैसे मुफ्त बिजली या पानी, संसाधनों के अत्यधिक उपभोग को प्रोत्साहित करती हैं, जिससे बर्बादी होती है और पर्यावरणीय चिंताएँ बढ़ती हैं।
- कर का बोझ: सब्सिडी के लिए आवश्यक धन अंततः करों (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) के माध्यम से जनता से ही वसूला जाता है। पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले कर, या जीएसटी जैसी अप्रत्यक्ष कर प्रणाली, सभी वर्गों पर समान रूप से लागू होती है, जिससे सब्सिडी का बोझ भी उन्हीं पर पड़ता है।
- लीकेज और भ्रष्टाचार: कई योजनाओं में लीकेज और भ्रष्टाचार की समस्या देखी जाती है, जिससे योजना का लाभ वास्तविक लाभार्थियों तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाता और जनता के पैसे का दुरुपयोग होता है।
उदाहरण: बिहार सहित कई राज्यों में बिजली सब्सिडी किसानों को दी जाती है। हालाँकि, यह अक्सर बिजली कंपनियों के घाटे को बढ़ाती है, जिसका बोझ अंततः राज्य सरकार और करदाताओं पर पड़ता है। इसी तरह, खाद्य सब्सिडी का बड़ा हिस्सा खरीद और वितरण लागत में जाता है, न कि सीधे लाभार्थियों तक।
बिहार और अन्य राज्यों का विशेष विश्लेषण
बिहार जैसे राज्यों में जहाँ प्रति व्यक्ति आय कम है और गरीबी का स्तर अधिक है, सरकारी योजनाओं की आवश्यकता और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। ‘सात निश्चय’ जैसी योजनाएँ, जिनका उद्देश्य बुनियादी ढांचे और मानव विकास में सुधार करना है, सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। विधवा पेंशन में वृद्धि जैसे कदम सीधे तौर पर कमजोर वर्गों को लाभान्वित करते हैं, जिससे उनकी आर्थिक सुरक्षा बढ़ती है। हालाँकि, इन योजनाओं के लिए धन जुटाना एक बड़ी चुनौती है।
अन्य राज्य, जैसे पंजाब और उत्तर प्रदेश, कृषि और बिजली पर भारी सब्सिडी देते हैं। जबकि यह किसानों को राहत देता है, यह राज्य के वित्त पर भारी दबाव डालता है, जिससे दीर्घकालिक विकास के लिए निवेश की क्षमता कम हो जाती है।
संतुलन साधने की आवश्यकता
निष्कर्ष के तौर पर, सरकारी योजनाएँ एक दोधारी तलवार हैं। वे आर्थिक सहायता प्रदान कर सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करती हैं, लेकिन उनके वित्तपोषण का बोझ और संभावित आर्थिक विकृतियाँ एक गंभीर चुनौती हैं। एक आर्थिक विशेषज्ञ के रूप में, मेरा मानना है कि संतुलन साधना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि:
- लक्ष्यीकरण प्रभावी हो: सब्सिडी केवल उन्हीं तक पहुँचे जिन्हें वास्तव में इसकी आवश्यकता है, लीकेज कम हो। विधवा पेंशन जैसे प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) योजनाएं, यदि सही ढंग से लागू की जाएं, तो लीकेज को कम कर सकती हैं।
- अकुशल सब्सिडी कम हों: ऐसी सब्सिडी जो संसाधनों की बर्बादी या विकृतियों को बढ़ावा देती हैं, उन्हें चरणबद्ध तरीके से कम किया जाए।
- पारदर्शिता और जवाबदेही हो: योजनाओं के कार्यान्वयन में पूर्ण पारदर्शिता हो और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जाए।
- दीर्घकालिक निवेश पर ध्यान दें: आर्थिक सहायता के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे क्षेत्रों में दीर्घकालिक निवेश पर भी ध्यान दिया जाए, ताकि लोग आत्मनिर्भर बन सकें और सब्सिडी पर निर्भरता कम हो।
- वित्तीय अनुशासन बनाए रखें: राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखा जाए ताकि भविष्य की पीढ़ियों पर कर्ज का बोझ न पड़े।
जब तक सरकारें इन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करेंगी, तब तक सरकारी योजनाएँ, चाहे वे कितनी भी कल्याणकारी क्यों न लगें, अंततः जनता पर एक अदृश्य आर्थिक बोझ बनी रहेंगी। यह आवश्यक है कि हम योजनाओं के तात्कालिक लाभों से परे उनके दीर्घकालिक आर्थिक प्रभावों का भी मूल्यांकन करें।
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